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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


तीन


बड़ी देर से संपाति निष्क्रिय पड़े थे। वे स्वयं ही समझ नहीं पा रहे थे कि वे अचेत हैं या सचेत। बीच-बीच में लम्बे अंतराल के लिए या तो वे सो जाते थे, या संज्ञा-शून्य हो जाते थे। कभी वे पूर्णतः संवेदनाशून्य हो जाते और कभी लगता कि उनकी आत्मा उनके शरीर से निकलकर जाने कहां-कहां उड़ती चलती है। नये लोक, नये लोग, नई भाषा, नये-नये रीति-रिवाज। ऐसे लोक तो न उन्होंने देखे, न सुने, फिर यह सब क्या है? ये सब उनके दुर्बल मन की कल्पनाएं थीं, या सत्य ही उनके प्राण निकल रहे थे ये प्राण भी इस शरीर के साथ  पिशाच के समान चिपक गए थे।-न रहते थे, न निकलते थे। यह जीवन भी कोई जीवन है-न जीवितों में, न मृतकों में...पेट था कि भूख-भूख चिल्लाता था और शरीर में इतनी शक्ति नहीं थी कि उठकर अपने लिए खाद्य का कोई प्रबन्ध कर सकता। पता नहीं भगवान् उन्हें किस पाप का दंड दे रहा था।

उसी अर्धचेतनावस्था में निकट ही कहीं कुछ लोगों के वाद-विवाद के स्वर, उनके कानों में पड़े थे। पता नहीं, वस्तुतः कोई था, या यह भी उनके मरते हुए मस्तिष्क से उनकी इन्द्रियों का विरोध था...कैसे-कैसे स्वर उनके कानों में आ रहे थे, जैसे कोई प्रतिज्ञा-पूर्वक प्रायोपवेशन करने बैठा हो...संपाति अपने अर्धचेतन मस्तिष्क से हँसे-वे निराहार मरने को बाध्य थे, तो उन्हें  अन्य लोग भी प्रायोपवेशन करते सुनाई पड़ते हैं...

''कौन है रे यहां, जो प्रायोपवेशन कर रहा है?'' वे पड़े-पड़े चिल्लाए, ''यदि मर ही रहे हो तो मेरे निकट आकर मरो, ताकि तुम्हें खाकर मैं जी उठूं।''

''आप कौन हैं आर्य? क्या आप नरभक्षी हैं?'' उन्हें नीचे की शिलाओं से एक भीरु-सा स्वर सुनाई दिया।

...अरे यहां तो वस्तुतः कोई है...उनकी चेतना की लौ जाग उठी।

बोले, ''नरभक्षी तो नहीं हूं; किन्तु भूख से मर रहा हूं। सोचा, तुम्हें अपना शरीर नहीं चाहिए, तो मेरा ही भला करते जाओ।''

नीचे का वार्तालाप बन्द हो गया, जैसे वे लोग सोच में पड़ गए हों। ''अच्छा, किसी को नहीं खाऊंगा भाई!'' संपाति ने हंसने का प्रयत्न किया, ''तुम लोग हो कौन? मुझे तनिक नीचे तो उतारो।''

नीचे कुछ हलचल हुई और दो-तीन लोग उनके निकट आए। उन्होंने सहारा देकर संपाति को नीचे उतारा। ''आप कौन हैं आर्य?''

''एक-वृद्ध, जो अपने शरीर की असमर्थता के कारण अपना भोजन नहीं जुटा पा रहा और भूख से मर रहा है। शरीर निरोग है, इसलिए मर नहीं रहा; और ऊर्जा नहीं हैं, इसलिए जी नहीं रहा।''

''आप कुछ खाएंगे?'' अंगद ने पूछा।

''है कुछ तुम्हारे पास?''

''कुछ फल और थोड़ा-सा जल?''

''खिला दो।''

अंगद अपना स्थान छोड़कर उठ गए और वृद्ध के मुख में थोड़ा-सा जल टपकाने के पश्चात् छील-छीलकर फल खिलाने लगे। ये फल तथा जल वे लोग अपने साथ स्वयंप्रभा के प्रासाद से ले आये थे।

यदि वह गुफा न मिल गई होती, अथवा भीगे हुए वे चक्रवाक पक्षी दिखाई न पड़ जाते-अंगद सोच रहे थे-तो उनकी तथा उनके साथियों की भी कदाचित् यही दशा होती। वृद्धावस्था भी कैसा अभिशाप है...कैसा दण्ड है यह! शरीर में प्राण तो हों, पर प्राण-शक्ति न हो, तो जीवन ऐसे ही यातनामय हो जाता है...''आपका कोई पुत्र नहीं है आर्य?''

''पुत्र तो है।'' संपाति बोले, ''किन्तु पुत्र कम है, कलंक अधिक है। न होता, तो मैं मान लेता कि मेरा कोई नहीं है और शांति से मर जाता। पर वह है...।'' जल पी लेने और कुछ खाद्य पदार्थ पेट में चले जाने से, उनके शरीर में कुछ ऊर्जा आ गई थी, ''शरीर चलता नहीं वत्स! पर मेरा मस्तिष्क अब भी बहुत दौड़ता है। इसीलिए पुत्र की कायरता और स्वार्थ-लोलुपता-दोनों से ही बहुत पीड़ित हूं...''

अंगद ने चौंककर देखा वृद्ध उन्हें ही तो नहीं सुना रहा। यदि वे किष्किंधा नहीं लौटे तो अपनी वृद्धावस्था में सुग्रीव उन्हें भी इसी प्रकार नहीं कोसेंगे क्या?'' आपका परिचय तात!''

संपाति संभलकर बैठ गए, ''पहले अपना परिचय कहो वत्स! नहीं तो कहोगे की वृद्ध अत्यन्त चालाक है-अपनी ही कहता है, दूसरों की सुनता ही नहीं।''

अंगद मुस्कराए। वृद्ध उनसे अत्यन्त गोपनीय प्रश्न पूछ रहे थे; किन्तु अब गोपनीयता का क्या प्रयोजन! जो व्यक्ति प्रायोपवेशन कर, प्राण देने को दृढ़प्रतिज्ञ हो-उसे अब गोपनीयता- अगोपनीयता से क्या?

अंगद ने निर्द्वन्द्व भाव से अपना और अपने साथियों का परिचय दिया और अपने अभियान का लक्ष्य भी बता दिया।

''जानकी का हरण कहां से हुआ वत्स?'' संपाति ने इन नामों तथा पटनाओं से विशेष अपरिचय प्रकट नहीं किया।''

''पंचवटी से आर्य!''

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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